Monday 6 June 2016

मूल्यांकन 2 – विष्णु नागर


पिछले दिनों स्पर्शपर शुरू हुई मूल्यांकनशीर्षक से इस नयी आलोचना श्रृंखला में हमने अपने पाठकों को बताया था कि इसमें हम हर महीने एक कवि पर केन्द्रित आलेख प्रकाशित करेंगें | इसके पहले अंक में आप कवि विजेंद्र की कविता पर आलोचक अमीरचंद वैश्य का आलेख पहले पढ़ चुके हैं | इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए इस श्रृंखला की द्वितीय प्रस्तुति के रूप में इस बार प्रस्तुत है हमारे समय के एक वरिष्ठ और जरूरी कवि विष्णु नागर की कविता पर युवा आलोचक आशीष सिंह का आलेख


जागो, जागो मैं बार-बार कहता हूँ
कि अब जागोभोर भई !

मकालीन हिंदी काव्य जगत में विष्णु नागर का एक महत्वपूर्ण स्थान है । एक कवि अपने समय बोध को कितनी शिद्दत से सामने लाता है इसी में उसके सृजनकर्म की उपादेयता दृष्टि गोचर होती है । कवि विष्णु नागर का लेखन इसी काल बोध की इन्दराजी का लेखन है । अपने समय के वस्तुगत सवालों का पीछा करती उनकी कविता अपना कथ्य निर्मित करती है ।  सहज सीधी जुबान में, तमाम कलात्मक गढंत-मढंत की बिना परवाह किये बेलाग-लपेट शब्दों में  सवालों का सामना करती मिलती है । कमोबेश यही वजह है कि उनकी कविता का मूल स्वर राजनीतिक है । राजनीति ठोस प्रश्नों का समाधान मांगती है । यहाँ राह की बाधाओं, को  प्रश्नांकित करता मनुष्य है । सामाजिक विकृतियों को कटघरे में खड़ा करता बुद्धिजीवी है । एक  बेहतर दुनिया बनाने का आकांक्षी नागरिक का सरोकार अपनी भूमिका तलाशता आगे आता है ।  इसीलिए एक राजनीतिक तेवर की कविता का कवि गोलमटोल शब्दावली में अपनी चिंतना  प्रस्तुत करने की बजाय सीधे - सीधे सवाल-जबाब की भाषा अख्तियार करता हैकुरेदने की  भंगिमा में। राजनीतिक कविताओं की यही भंगिमा सत्ता को चुनौती देती जनसवर बनकर  अवाम को ताकत देती है । हमारे सामने ज्यादा साहस और स्पष्टवादिता के साथ विष्णु नागर  की कविताएं अपना खास तेवर लेकर प्रकट होती हैं। ये कविताएं अपनी सामाजिक भूमिका व  धर्म  निर्वहन  करती  मिलती  हैं । और हम  पाते  हैं कि इस कवि  की  प्रतिबद्धता अपने   दौर  की जबाबदेही में  ही है ।  बिना   डरे - सहमें लेकिन  कम बोलने  वाले  कवि  की  तीखी  कविता है विष्णु नागर  की  कविता ।

समकालीन   सवालों  का सामना करते  हुए  कवि  मनुष्य   पहले  रहता है। बहुत काल तक याद किये जाने  वाले  कवि की चिन्तना बहुत पीछे नजर आती  है  ।  यहाँ  कवि - कर्म जीवन  कर्म  से गुंथा बुना  ध्वनित   हो  रहा  होता  है ।  जब तक किसी  कवि का अपनी   दुनिया   के  प्रति  गहरा ममत्व  नहीं   होगा वह  उस  दुनिया   को  तबाह   करने वाली शक्तियों  के  प्रति  गहरी  नफरत  से  लैस  भी  नहीं   होगा ।  उसकी  कविता  में  प्रकट  होने  वाला   साहस  उसकवि का जनता  से  गहरे  अपनाव   की काव्यात्मक अभिव्यक्ति  ही  है  । राजनीतिक व्यंग्यपूर्ण  कविता   के  प्रमुख  कवि नागार्जुन  कहते भी  हैं --
       जनकवि  हूं  मैं  साफ कहूंगा, क्यों   हकलाऊँ ।
और इस साफ कहने वाले जनकवि ने अपने समय के सत्ताधारियों  को   बिना हकलाए  बेधक  व्यंग्य वाणों   से  घेरने में पीछे   नहीं   था ।  जब वह  कहते  हैं -
इन्दू  जी , इन्दू जी
क्या  हुआ  आपको
सत्ता   के  मद में
भूल    गयी     बाप को ।

या   विदेशी    ताकतों    के   सामने  खींस  निपोरते,  झुक झुक सलामी ठोकते  शासक वर्ग के  लिज लिज व्यवहार  पर  चुटकी  लेती  बा नाम  चिन्हित  पंक्तियां  इसकी गवाह हैं, 
आओ रानी  हम ढोयेंगे पालकी
यही हुई है राय जवाहर लाल की ।

आदि  तमाम   पंक्तियां  के  जरिए  यह  जनकवि व्यंग्योक्ति करने  में,  सीधी मारक चोट   करने में हिचकिचाया नहीं। समकालीनता  से  सीधी   जबाबदेही  ही  इस कवि  को  जनकवि   का दरजा प्रदान करती है । 

उसी  क्रम  को  आगे   बढ़ाने  वाले आज के  कई  कवियों  में    एक   नाम  विष्णु  नागर  का   भी    है  ।  उनकी   कविता   का अपना अलहिदा  टोन  है,  कथ्थ  में  तुर्शी   है  ।  यही  चीज  उनकी   कविता  को अलग   रंग  प्रदान    करता    है  ।  उनके काव्य संग्रह  ' तालाब  में  डूबी   छह  लड़कियां, (१९८०)  'संसार   बदल जायेगा    (१९८५) ,  ' कुछ    चीजें  कभी  खोई   नहीं  (२००१), '     हंसने    की  तरह रोना, (२००६) । ताजा संग्रह  ' घर    के  बाहर   घर  में  और   सद्यः   प्रकाशित   काव्य  पुस्तक;   जीवन भी कविता हो  सकता है" में उनके  काव्य टोन का सतत तीखापन विकसित होते  हुए देखा जा सकता  है ।
 
      पेशे से  पत्रकार   विष्णु  नागर   की    कविता   में   तथ्य  और  ब्योरों    की   कमी  नहीं   है । या  यूं  कहें   कि  यही   तथ्य   उनकी   कविता   को  प्रमाणिक   बना  देती  हैं।  वे  अपनी   कविता   में  बहुत   मामूली   और  सामान्य  लहजे   में   बेहद   प्रासंगिक   और  गम्भीर  प्रश्नों    का    सामना   करते   मिलते   हैं  ।   हिंदू  कट्टर पंथियों  पर  लिखी   गई   कविता -- बेचारों    का  हिंदू  राष्ट्र "
  इस  कविता   की  शुरूआती पंक्तियां अपने व्यंग्यात्मक  लहजे   में  अपने  हिंदू राष्ट्र    का  निर्माण  करने   को  उद्धत  शक्तियों  की  बेचारगी  पर   तंज   कसते   हुए   कहती   है  -
  उन्होनें   मारे
और  और मारे
और और   और  लोग   मारे 
उन्होनें  मारने  में पचास  साल  से  भी   ज्यादा   साल   लगा   दिए
फिर   भी  बना  नहीं 
हाँ  जो  बन  ही  नहीं   सका
बेचारों का हिंदू  राष्ट्र
              
             ---( हंसने   की  तरह   रोना  से)

कितनी  गहरी  तंज  कसती  है  ये पंक्तियां  । कोई  जल्दबाजी  नहीं न  ही  निर्णय  सुना   देने   की  अकुलाहट है । फ़ासीवादी  शक्तियों की जमीन परउनके  मानवीय  सवातंत्रय  विरोधी उपक्रम की  लगभग  खिल्ली   उड़ाती   है यह  कविता । यह  कविता  अपने  तीखे  तेवर के साथ  बड़ी   सहजता   से  इन  धर्म ध्वजा धारियों  के खोखले आदर्शों की  बखिया   उधेड़ती मिलती  है ।

इसी  प्रकार  विष्णु  नागर  अपनी   ताजा   कविता   में   बताते हैं   कि  ये  बात  अब   पुरानी   पड़  गयी  है  कि  जहाँ  उजाला  आ जाता है  वहाँ  से   अंधेरा  भाग    जाता है। या  अंधेरे   का   वृत्त अपने  परिक्षेत्र   में   अपनी  रोशनी  का  साम्राज्य    बना  लेता  है  ।  उजाले   को  अंधेरे   से  लड़ने   के  लिए  अंधेरी   ताकतों   की   पसरी  रोशनी   से   कदम  कदम  पर   जूझना   पड़ेगा    -

बहुत   सी   बातें  हम   मानकर  चलते हैं
जैसे   कि  जहाँ   उजाला   होता  है 
वहाँ   अंधेरा    नहीं    होता  
जबकि
जहाँ  उजाला   होता  है
वहाँ    भी   अंधेरा    होता   है
और  अंधेरे   की   अपनी  भी   रोशनी    होती   है ---
                 (अंधेरे   की  रोशनी)

अग्रगामी  ताकतों को अपनी जडीभूत  कमियों   से  सतत  जूझना होता  है   वहीं पुरातनपंथी  ताकतों  को खादपानी  देने वाली  सामाजिक  आधारों  पर  निर्मम प्रहार   करते हुए  आगे डग  भरना  अस्तित्व की शर्त  है ।

आज  हमारे  मुल्क   जिस  प्रकार  विचारों  पर पहरे  बिठाने  की  कोशिशें  हो  रही हैं  । अभिव्यक्ति  का  गला घोंटने  के लिए  प्रतिक्रियावादी  ताकतें  किसिम  किसिम  से  अपनी  कारगुजारियां  करती  फिर   रही  हैं। ऐसे सामाजिक वातावरण  पर "अपने  आप  से" नामक   कविता   में  विष्णु   नागर  अपने  आक्रोश  को  कुछ  इन शब्दों  में  प्रकट   करते  हैं ---

एक दिन मैने 
अपने आप  से कुछ कहा
गनीमत  थी  कि  जो  कहा  
उसे  सिर्फ   मैने    सुना
किसी  को उसकी   भनक   तक  नहीं  लगी
आगे   से  मैने  तय किया  है  कि  
अव्वल   तो  अपने  से  कुछ  कहूंगा  नहीं
और  कहा   तो  कहने  में 
पूरी  सावधानी   बरतूंगा
मैं   जानता  हूं   कि 
दीवारों  के  भी   कान  होते  हैं 
लेकिन  क्या   मैं  मूर्ख  हूं
मैं  दीवार  से   कुछ  और कहूंगा 
और  अपने  आप  से  कुछ और  ।

 
        साम्प्रदायिक शक्तियों  के   कारनामों  और  समाज  में  पैर   पसारती  फ़ासीवादी  ताकतों   के    विरुद्ध  जिस     तीखेपन  के  साथ  विष्णु  नागर   की  कविताएं  खडी   होती    हैं  वह  गौर   करने लायक  है ।  इससे  कवि   के दृष्टि   का  पता  चलता  है  । अभी    ज्यादा   दिन नहीं   गुजरे  जब  सामाजिक  कट्टरपन और  अंधविश्वासी   मानसिकता  को  पालने पोसने  वाली  ताकतों  के  खिलाफ   लड़ने  वाले  कन्नड़ विद्वान  मालेशप्पा एम . कलबुर्गी की  हत्या  की गई। उसी  वैज्ञानिक  और तर्कणा  राह  के  राही नरेन्द्र  दाभोलकर  को  जान गंवानी  पडी।  लेखक - सृजनकर्मी  को  लिखने  रचने  के  एवज में  ऐन केन प्रकारेण  तमाम  अवरोधों  से दो चार  आम  बातहोती  जा  रही है । इससे अंदाजा लगाया  जा सकता है  कि  जहर उगलती विचारधारा  के पैरोकारों  की  हौसले कितने  बुलंद   हैं ।  संवेदनहीन - मानवीय गुणों  से  रिक्त  इन  अमानुषों  के  चेहरों   को उघाड़ती  विष्णु   नागर   की  यह  कविता  दृष्टव्य     है ---

आपके   पास   सिर्फ   छह  मिनट  बचे  हैं 
केवल   छह मिनट
घर   के सारे  काम निपटा  लीजिए 
फिर  इत्मिनान  से  देखिए
हमारा  नया   शो
सिर्फ  इसी  चैनल पर  आने वाला है 
आपका  चहेता  पसन्दीदा  हत्यारा आयेगा
कि  उसने आपका  खून
अब  तक  क्यों  नहीं   किया   है
लेकिन  वह जब  आए
तो घबराइए  मत
वह  बहुत  सभ्य  है
आपसे  एप्वाइण्टमेंट  लेकर ही  आएगा
आत्मिक ढंग से मुस्कराएगा
आपसे  अपनों  की  तरह  गपशप लड़ाएगा
आपके हाथ  की बनी  चाय पीकर
उसकी   तारीफ  के पुल  बांधेगा
फिर  आपकी  इजाज़त से  ही 
आपकी   हत्या कर   देगा 
जिसका   आपको  तो   पता  भी   नहीं  चलेगा
तो  तैयार  रहिए 
अब  सिर्फ  पांच मिनट  बचे  हैं  ।

                     (आपके  पास सिर्फ पांच मिनट बचे हैं)

      ये पंक्तियां पढ़ते हुए हमारी आंखो के सामने  से  'सदाचार  'और  "संस्कृति   "की  दुहाई   देते  ठंडे  हत्यारों   की  कारगुजारियां   तैरने  लगती  हैं  ।राष्ट्र -  संस्कृति   के  नाम पर  जिस  तरह  की  मानसिकता स्वाभाविक सौंदर्य  को  कुचलने  के  लिए  अपनी  तलवारें   लहरा  रहे  हैं उन्मादी  भीड़   के  हवाले  सामाजिक न्याय  का कुचक्र  रचा  जा  रहा  है वह  हमारे  सामने  की  एक नंगी   हकीकत  है ।

        इस  प्रकार  हम  देखते  हैं  कि  विष्णु   नागर  की  कविता कठिन   समय  में  मानवीय  हितों   की  नुमायन्दगी   और  अमानवीय शक्तियों  के  प्रतिरोध   की  कविता   है  ।  वे महज  बयान  नहीं   देते  न  ही    महज  विकृतियों  की इन्दराजी  करके  चुपा  जाते  हैं  । वे  सचेत  बुद्धिजीवी   की  भूमिका में  खडे  मिलते  हैं  । कहते  हैं  जिस  प्रकार  पक्षियों  को  आभास  हो जाता है कि प्रकृतिक  आपदा   आने वाली  है ।  कुछ  दुर्घट  घटने  वाला  है  उसी  प्रकार  सच्चा  सृजनकर्मी अपने  समाज  की  धड़कनों  को   महसूसता  है ।  अन्दर चल रही अनहोनी  के  भवितव्य को  सहजता   से समझ लेता  है  इसीलिए  वह  सतत  संघर्ष शील  जन  के  साथ  आवाज  लगाता  गाफिल  अवाम  को  जगाता  रहता  है  ।विष्णु नागर  की  कविता "आधी रात को चहचहाहट" नामक  कविता कुछ  ऐसा  ही व्यक्त   कर  रही  है  --

एक  अकेला  पंक्षी 
जब  आधी  रात  को  चहचहाता  है
तो    इसके    मायने    क्या   हैं ?
क्या   सिर्फ   यह  कि  उसकी   नींद
समय  से  पहले  खुल  गई  है
और  उसका   समय बोध  गड़बड़ा गया है
और  वह  भौंचक  है  कि  दूसरे पंक्षी
क्यों   चहचहा  नहीं   रहे  ?
और  वह  दूहरों  से  कह  रहा है कि
भई तुम  भी  चहचहाओ
जागोजागोमैं  बार-बार कहता हूं
कि  अब  जागोभोर भई  ।
                     
                                    (हंसने की तरह रोना है)
________

‘कृतिओर’ के अप्रैल-जून 2016 अंक में प्रकाशित






-आशीष कुमार सिंह
ई-2, 653, सेक्टर-एफ, जानकीपुरम, लखनऊ 260021

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